कश्मीरी शारदा लिपि का संक्षिप्त इतिहास

भारत के हर प्रान्त में काल गणना का प्रचलन है। कहीं विक्रमी संवत तो कहीं शक संवत के आधार पर पचांग की गणना होती है। केवल कश्मीर ही ऐसा प्रदेश है जहाँ के ज्योतिषाचार्य सप्तऋषि संवत को आधार मानकर कालगणना सहस्रों वर्षों से करते आये हैं।

ग्रेगोरियन व्यवस्था के अनुसार अभी ईसा पूर्व २०२० वर्ष, विक्रमी संवत के अनुसार अभी २०७७ वर्ष में हैं। किन्तु कश्मीर के सप्तऋषि संवत के अनुसार वर्ष ५०९७ लागू है। यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कश्मीर का इतिहास कम से कम ५००० वर्ष का है।

कश्मीर के इतिहास पर आधारित “नील मत” पुराण का होना भी कश्मीर के गौरवमयी वैदिक इतिहास की पुष्टि करता है।

नीलमत पुराण में ऋषि वैशंपायन तथा अभिम्न्यु के पौत्र राजा जनमेजय के मध्य हुए वार्त्तालाप, जहां ऋषि वैशंपायन महाभारत काल के राज्यों तथा राजाओं का वर्णन करते हैं, वहां कश्मीर के राजा गोनन्द-१ रानी यशोमती तथा उनेक पुत्र गोनन्द-२ का भी वर्णन है। इसके अतिरिक्त विश्व के प्रथम इतिहासकार कल्हण ने कश्मीर की ऐतिहासिक घटनओं का वर्णन अपनी पुस्तक राजतरंगिनी में किया, वे भी कश्मीर से ही थे। इतिहास लेखन की निरन्तर सरिता को क्रमशः जोनराज एवं श्रीवर ने चिरकाल तक व्यवस्थित रखा।

नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुर वासिनी।
त्वामहम्‌ प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देही में॥

कश्मीर को विद्या की देवी मां शारदा का निवास स्थान भी कहा गया है। इसलिए कश्मीर को शारदा प्रदेश भी कहते हैं। कृष्णगंगा नदी के तट पर बने कश्मीर के पुरातन विश्वविद्यालय तथा मन्दिर परिसर शारदा पीठ की ख्याती सुदूर प्रदेशों में थी। आदि शंकर ने शारदा पीठ का दक्षिणी द्वार खोला, मां शारदा से साक्षात्कार के पश्चात शंकराचार्य कहलाए। कश्मीर की धरती पर अनेक साहित्यकारों का ज्न्म हुआ। संस्कृत साहित्य जगत में व्यावहारिक एवं पारमार्थिक संदर्भों में कश्मीर के दार्शनिकों का योगदान अद्वितीय माना जाता है।

पाणिनी के अष्टाध्यायी, पतंजली के महाभाष्य, आचार्य अभिनव गुप्त के कश्मीर शैव दर्शन , सौन्दर्य शास्त्र, नाट्य शास्त्र जैसे ४० से अधिक ग्रन्थ अन्तराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में शोध का विषय हैं। इनके अतिरिक्त भी क्षेमेन्द्र के व्यंग, नाटक और अनगिनत ग्रन्थ भी कश्मीर में उत्पन्न हुए हैं। उपरोक्त सभी ग्रन्थ कश्मीर की मुल शारदा लिपि में लिखे गय थे। सहस्रों पाण्डुलिपियों मे इसका प्रमाण मिलता है।

मध्यकालीन कश्मीरी सन्त जैसे लल्लेश्वरी , माता रूप भवानी के दोहे तथा वाक भी शारदा लिपि में मिलते हैं। शारदा लिपि का अवतरण गुप्त ब्राह्मी की पश्चिमी शाखा से हुआ। इतिहासकारों का मत था कि शारदा लिपि का प्रचार प्रसार ईसा पूर्व ८वीं शताब्दी से हुआ, किन्तु हाल ही में मिली भखशाली पाण्डुलिपि जिसमें शून्य का वर्णन मिलता है, शारदा लिपि में ही लिखी गइ है। पाण्डुलिपि की कार्बन डेटिंग उसको तिसरी शताब्दी ईसा पूर्व की बताती है। शारदा लिपि का प्रचलन कश्मीर, पंजाब , हिमाचल कांगड़ा, जम्मु तथा तिब्बती क्षेत्रों में था। शारदा लिपि, टाकंरी, लाहण्डा, गुरुमुखी, तिब्बती लिपियों की जननी है।

१३४९ ई. में कश्मीर का पहला इस्लामिक शासक शाह मीर हुआ। इसके सौ वर्ष बाद तक संस्कृत तथा शारदा का प्रचलन राज्यकीय कार्यों में रहा, किन्तु १४५० ई के लगभग सिकन्दर बुतशिकन तथा उसके पुत्र जैनुलब्दीन ने संस्कृत को हटा कर सैद्धान्तिक रुप से फार्सी तथा नस्तालिक को कश्मीर पर प्रबलता से लागू कर दिया।

शारदा लिपि को शैक्षणिक संस्थाओं से व्यवस्थागत रुप से पृथक कर दिया गया। इस लिपि के अभिरक्षक , कश्मीरी पण्डितों को क्रूर धर्मान्तरण का सामना करना पड़ा, फलस्वरूप कश्मीरी पण्डितों का कश्मीर से पलायन का क्रम १४४८ में प्रारम्भ हुआ। इसके पश्चात कश्मीरी पण्डितों को क्रमशः हर शताब्दी में पलायन और उत्पीडन सहना पड़ा। कश्मीर की बौद्धिक संस्कृति के साथ साथ वहां की शारदा लिपि भी क्षतिग्रस्त हुई।

कश्मीरी पण्डित समाज ने १९५० के दशक तक गुप्त रुप से जातकों, ज्योतिष तथा कर्मकांड के माध्यम से शारदा लिपि को जीवित रखा। धीरे धीरे शारदा लिपि के ज्ञाता लुप्त होते गए और १९९० के दशक में कश्मीरी पण्डितों के सातवें पलायन के साथ यह लिपि लुप्त प्राय हो गइ है।

विभिन्न शारदा सॉफ्टवेर के माध्यम से शारदा लिपि के पुनरुत्थान तथा लिपि रुप में माँ शारदा को पुनःमुखरित करने का एक प्रयास किया जा रहा है। इस से शारदा लिपि में ग्रन्थादि की रचना, समाचार पत्र, पत्रिकाएं नियमित रुप से प्रकाशित हो पाएंगे।

(** यह लेख नई दिल्ली स्थित श्रीमती ज्योति कौल द्वारा लिखा गया है)